Saturday, 4 May 2024

स्थिर, अधीर..

बिखर के, सिमट के, थरथराते हुए, 

जब निराधार हो जाता हूँ, 

ख़याल असीमित हो जाते हैं, 

ब्रह्मांड की तरह, 


तो खुल जाती हैं सारी गिरहें,

शून्य में तैरता हुआ मेरा मन, 

स्थिर होता है तुम पर, 

और शुरू होती है विवेचना, 


स्थिर, अधीर, स्थिर, अधीर, 

इतनी विशाल पृष्ठभूमि में बस तुम, 

खूब सोचता हूँ तुम्हारे बारे में, 

फिर सोचता हूँ, 

क्या समस्त दर्शन प्रेम में निहित है,

क्या अस्तित्व का अंतिम लक्ष्य प्रेम ही है, 

माया क्या है,

प्रेम है, ये प्रेम के अतिरिक्त सब, 


फिर सोचता हूँ,

ख़ैर छोड़ो ये बड़ी बातें, 

कल जल्दी उठना है, 

बहुत काम है, 

प्रेम, माया, दर्शन, जीवन, 

स्थिर, अधीर, स्थिर, अधीर...